राजेश श्रीवास्तव
लखनऊ । कभी भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता था । लेकिन आज वह स्थिति आ गयी है जब हमारा अन्नदाता ख्ोती को छोड़कर उसका विकल्प तलाशने लगा है। यह स्थिति सिर्फ यह सोचने को विवश नहीं करती कि किसान ख्ोती छोड़ रहा है। बल्कि यह सोचने को लाचार करती है कि अगर भारत कृषि का मूल काम छोड़ देगा तो हमारी तो अवधारणा ही बदल जायेगी। कृषि की हालत इस समय एक रहस्य है। समझ में नहीं आ रहा है कि अर्थव्यवस्था का यह क्षेत्र मुनाफ़े का क्यों नहीं बचा? कृषि के अलावा भारतीय अर्थव्यवस्था के बाकी दो क्षेत्र हैं उद्योग और सेवा क्षेत्र। देश की माली हालत यानी जीडीपी बढ़ाने में इन्हीं दो क्षेत्रों की भागीदारी सबसे ज्यादा है और ये बढ़ती ही जा रही है, इसलिए योजनाकार यह मानकर क्यों नहीं चलते कि जीडीपी बढ़ाने वाले इन्हीं उद्योग और सेवा क्षेत्र पर ज्यादा ध्यान लगाया जाए और देश की आर्थिक वृद्धि दर बढ़ाई जाए। लेकिन क्या देश के लिए भी आर्थिक वृद्धि दर ही सबकुछ है? जब हमने जान लिया है कि आर्थिक वृद्धि दर सबका विकास नहीं कर पा रही है तो हमें यह भी मान लेना चाहिए कि आर्थिक वृद्धि के आंकड़ों का लोकतंत्र के समतुल्य वितरण के लक्ष्य से कोई रिश्ता-नाता बन नहीं पा रहा है।
अंधी गली में भारत की अर्थव्यवस्था(भाग-4)
मौजूदा हालात ये हैं कि देश की आधी से ज्यादा आबादी वाला किसान खेती छोड़कर कुछ और करने की सोचने लगा है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या देश इतना समर्थ हो गया है किसानों के इतने बड़े तबके के लिए रोजगार या कामधंधा ढ़ूंढ सके? गांव से पलायन इसी समस्या का प्रत्यक्ष लक्षण है। कुछ समय पहले सीएसडीएस यानी सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिग सोसाइटीज़ ने एक सर्वे के जरिए इस हकीकत का खुलासा किया था। सर्वेक्षण के मुताबिक 76 फीसद किसान खेती छोड़कर कोई दूसरा काम करना चाहते हैं, लेकिन यह शोध सर्वेक्षण रिपोर्ट उस जैसी दूसरी मीडिया रिपोर्टों की तरह अनदेखी का शिकार हो गई। गांवों से पलायन की स्थिति किसी से छुपी नहीं थी। यानी इसे पहले भी भांपा जा सकता था। पिछले कुछ साल से कृषि उत्पादों के दामों में मंदी, सिचाई के पानी, बिजली की कमी और उपज की लागत बढ़ते जाने पर चिता जताई जा रही थी। उसी बीच किसान आंदोलनों की संख्या बढ़ गई। इससे समझ लिया जाना चाहिए था कि खेती किसानी की हालत कितनी नाजुक है। लोकसभा में 38 फीसदी सांसद पेशे से किसान, क्या होगा किसानों का भला? बहरहाल किसानों का अंसतोष इतना लंबा खिचा कि यह भी समझ में आ जाना चाहिए था कि किसानों के पास गांव छोड़कर काम की तलाश में शहर की तरफ भागने के अलावा कोई चारा बचेगा नहीं। और अब तो हमें यह कबूल करने को तैयार हो जाना चाहिए कि देश के लिए भोजन का इंतजाम करने वाले गांव और किसानों के साथ न्याय करने में हम नाकाम होते जा रहे हैं। देश की आधी से ज्यादा आबादी के साथ यह अन्याय हमें बेरोजगारी और कम से कम नीतिगत भ्रष्टाचार पर बात करने के लिए मजबूर कर सकता है। मसला खेती में छद्म रोजगार का दिखता यही है कि कृषि सबसे ज्यादा रोज़गार देने वाला क्षेत्र है। इस भ्रम में पड़ने का कारण यह है कि देश के कुल कार्यबल का आधे से ज्यादा हिस्सा खेती में लगा बताया जाता है, लेकिन हम इस बात पर गौर करने से चूक गए कि रोजगार और छद्म रोज़गार में फर्क होता है। इस समय छद्म रोजगार का अगर कोई सबसे बड़ा शिकार है तो वह कृषि क्षेत्र ही है। विशेषज्ञ लोग छद्म रोजगार को बेरोज़गारी ही मानते हैं।