आज से ठीक 20 साल पहले 26 जुलाई 1999 को भारतीय सेना ने ‘ऑपरेशन विजय’ के तहत कश्मीर के कारगिल जिले में अपने शौर्य का परिचय देते हुए पाकिस्तानी घुसपैठियों को देश से खदेड़ा था। इस दौरान हमारे जवानों ने देशप्रेम की वो गौरवगाथा लिखी थी, जिसे सदियों तक भूल पाना नामुमकिन है। 18 हजार की फीट पर जवानों द्वारा लड़ा गया ये वो युद्ध था जिसमें भारत के जॉंबाजों ने पाकिस्तान के 3000 सैनिकों को मार गिराया था। इस ऑपरेशन के दौरान हमारे 1363 जवान घायल हुए थे, साथ ही 527 जवान वीरगति को प्राप्त हुए।
देश पर मर मिटने वालों में एक नाम सुनील जंग का भी है। दो बहनों के इकलौते भाई और घर के चिराग सुनील, कारगिल में शहीद होने वाले सबसे कम उम्र के शहीद हैं। देशप्रेम ने उन्हें 16 की उम्र में ही भारतीय सेना से जोड़ दिया था। वे 11 गोरखा राइफल्स रेजीमेंट के जवान थे और कारगिल युद्ध में लखनऊ से होने वाले पहले शहीद।
8 साल की उम्र में खुद को देश का सिपाही मान लेने वाले सुनील ने एक फैंसी कॉम्पीटीशन के दौरान ही अपनी देशभक्ति का परिचय दे दिया था। उन्होंने बचपन में ही मंच से ऐलान कर दिया था कि देश की रक्षा के लिए वह अपने खून का एक-एक कतरा बहा देंगे, जो उन्होंने समय आने पर किया भी।
कॉम्पीटीशन में एक ओर जहाँ अन्य बच्चे फैंसी वेश-भूषा में थे तो सुनील सेना की वर्दी में। अपने लिए यह ड्रेस उन्होंने पिता की पुरानी वर्दी काटकर बनवाई थी। माँ से बंदूक दिलवाने की भी जिद की थी। तब उन्हें प्लॉस्टिक की बंदूक थमाकर शांत कराया गया था। लेकिन देश के लिए मर-मिटने वाला जुनून कहाँ थमने वाला था…
सैनिक बनने की इच्छा इस वीर में इतनी प्रबल थी कि 16 साल की उम्र में ही घरवालों को बिना बताए सेना में भर्ती हो गए। घर लौटकर माँ को बताया “माँ मैंं भी पापा और दादा की तरह सेना में भर्ती हो गया हूँ, मुझे भी उनकी तरह 11 गोरखा राइफल्स में तैनाती मिली है। अब मेरा बचपन का सपना पूरा हो गया।”
मीडिया प्लेटफार्म पर मौजूद जानकारी के अनुसार सुनील की माँ बीमा महत बताती हैं कि कारगिल में जाने से पहले सुनील घर आए थे। वे कुछ दिन घर रुके, लेकिन फिर यूनिट से उन्हें बुलावा आ गया। सुनील ने माँ को समझाया कि वे अगली बार लंबी छुट्टियों में घर आएँगे। लेकिन! नियत ने कुछ और ही तय किया हुआ था।
10 मई 1999 को उन्हें कारगिल सेक्टर पहुँचने का आदेश मिला। वे अपनी टुकड़ी के साथ सिर्फ़ इस जानकारी के साथ आगे बढ़े थे कि भारतीय सीमा में 400-500 की तादाद में घुसपैठिए घुस आए हैं।
अपनी टुकड़ी के साथ वहाँ पहुँचकर राइफलमैन सुनील जंग तीन दिनों तक दुश्मनों का सामना करते रहे, किंतु 15 मई को भारी गोलीबारी में कुछ गोलियाँ उनके सीने में लगीं। लेकिन देश के लिए लहू का कतरा-कतरा बहा देने का आह्वान बचपन में ही करने वाले 20 साल के ये शूरवीर मैदान-ए-जंग में हार कहाँ मानने वाले थे। सुनील ने छलनी सीने के बावजूद युद्धभूमि में अपने हाथ से बंदूक नहीं गिरने दी और लगातार दुश्मनों पर वार करते रहे। तभी ऊँचाई पर बैठे दुश्मन की एक गोली उनके चेहरे पर लगी और वे वहीं वीरगति को प्राप्त हो गए।
सुनील जंग द्वारा वीरगति प्राप्त किए जाने के बाद दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा जैसे बड़े-बड़े नेता उनके घर आए। इस दौरान उनके माता-पिता को सुनील के नाम पर कैंट में एक स्टेडियम बनाने, उनकी प्रतिमा लगवाने और बहनों को नौकरी दिलाने का आश्वासन दिया गया। लेकिन अफसोस! 20 साल की उम्र में खुद को देश के लिए सौंप देने वाले शूरवीर सुनील के परिवार को कारगिल युद्ध के 20 साल बाद भी कुछ नहीं मिला। उनके पास बची है तो सिर्फ़ अपने बेटे की गौरवगाथा और देश के प्रति अथाह प्रेम।
सुनील के शहादत की खबर सुनकर परिवार की हालत
7 साल पहले टीएनबी मीडिया द्वारा सुनील के घरवालों का लिया गया साक्षात्कार यूट्यूब पर मौजूद है। जिसमें वे उस क्षण को बताने का प्रयास कर रहे हैं जब उन्हें सुनील की शहादत का पता चला। वे बताते हैं कि जब सुनील को वीरगति मिली तो उनके घर बड़े-बड़े अधिकारी आए लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा। वे लोग वहाँ से बगैर कुछ कहे चले गए। बाद में उन्हें बताया गया कि उनके बेटे ने कारगिल में बलिदान दिया है। सुनील के पिता बताते हैं कि उन्हें समझ नहीं आया कि वे क्या बोलें… उन्होंने बड़ी मुश्किल से इस बारे में अपने अपनी पत्नी और बच्चों को बताया।