नई दिल्ली। आखिरी वक्त में तीन बार दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं वरिष्ठ कांग्रेस नेता शीला दीक्षित को अपनों से ही बार-बार गिरते स्वास्थ्य और भूलने को लेकर लग रहे आरोपों पर कई बार सफाई देनी पड़ी। दिल्ली के प्रभारी पीसी चाको की तीन दिन पहले मिली आखिरी चिट्ठी भी शायद उनका मनोबल तोड़ने और राजनीतिक झटका देने के लिए काफी थी। इसी मार्च में उन्होंने 80 साल पूरे किए थे।
शीला के करीबियों का कहना है कि उनका मनोबल तोड़ने और राजनीतिक झटका देने के लिए दिल्ली के प्रभारी पीसी चाको की तरफ से तीन दिन पहले लिखी गई आखिरी चिट्ठी शायद काफी थी। चाको ने चिट्ठी लिखकर कर कहा कि आपकी सेहत ठीक नहीं है, ऐसे में तीनों कार्यकारी अध्यक्ष स्वतंत्र रूप से काम करेंगे और बैठक बुलाएंगे। इससे आहत शीला ने अगले दिन ही चाको को जवाब देते हुए तीन कार्यकारी अध्यक्षों के कामकाज का बंटवारा कर दिया। ये फैसला उनकी दूसरी राजनीति पारी का आखिरी फैसला साबित हुआ।
राहुल गांधी ने इस साल जनवरी में शीला दीक्षित को एक बार फिर अगुवाई का मौका दिया। तीन कार्यकारी अध्यक्षों के साथ शीला दीक्षित को दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया। इस बार शीला जब दिल्ली लौटीं तो उनके अपने भी पराए थे और उन्हें भुला दिया था। उनके नेतृत्व पर सवाल उठाने और अक्षम साबित करने के लिए पार्टी के भीतर से ही उनके भूल जाने के तंज खुलेआम सुनाई दे रहे थे। हर बार उन्होंने इसका जवाब भी दिया। पार्टी के बाहर भी विरोधियों के बीच उनकी छवि पर भूलने के दाग लगा रही थी।
लोकसभा चुनाव से पहले शीला ने संगठन को कसने के लिए कुछ फेरबदल किए जिसके बाद उनके करीबी रहे राजकुमार चौहान पार्टी छोड़कर भाजपा में चले गए। शीला दीक्षित के अड़े रहने के कारण ही दिल्ली में आप के साथ गठबंधन नहीं हुआ। पार्टी के तमाम नेताओं ने उन्हें कोसा जरूर लेकिन लोकसभा चुनाव में पार्टी आगे बढ़ती हुई दिखी।
2017 को यूपी विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस के सामने ऐसा कोई चेहरा नहीं था जिसे आगे करके चुनाव लड़ा जाए। कांग्रेस नेतृत्व ने शीला दीक्षित को यूपी की सीएम उम्मीदवार के तौर पर पेश किया। पार्टी उनके माध्यम से यूपी के ब्राह्मण मतदाताओं, विकास करने वाली महिला की छवि और अनुभव को भुनाना चाहता था। शीला दीक्षित ने यूपी में बस से दौरा भी शुरू कर दिया था लेकिन गठबंधन की राजनीति में उन्हें अपने पैर खींचने पड़े और पार्टी ने भी अपनी इस नेता को घर बैठा दिया।