लखनऊ। पूर्वी उत्तर प्रदेश के अंतिम छोर पर स्थित बलिया के समाजवादी नेता नीरज शेखर ने राज्यसभा और समाजवादी पार्टी से इस्तीफा दे दिया है. नीरज के भाजपा में शामिल होने की अटकलें लगाई जा रही हैं. देश के आठवें और इकलौते समाजवादी प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के पुत्र नीरज के इस कदम से सवाल उठने लगा है कि उन्होंने अपने पिता की जिस समाजवादी खड़ाऊं के साथ राजनीतिक विरासत संभाली थी, क्या वह खड़ाऊं उतारकर कमल की गोद में बैठ जाएंगे?
सन 2014 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद सपा ने उन्हें राज्यसभा भेज दिया था. 2019 के हालिया चुनाव में वह बलिया सीट से टिकट के दावेदार थे, लेकिन पार्टी ने भाजपा उम्मीदवार वीरेंद्र सिंह मस्त के सामने नीरज की बजाय पूर्व विधायक सनातन पांडेय को उतार दिया. गौरतलब है कि अपने राजनीतिक जीवन के पहले 2007 के संसदीय उपचुनाव में नीरज शेखर ने वीरेंद्र सिंह मस्त को ही पटखनी दी थी. टिकट न मिलने के बाद से ही वह नाराज चल रहे थे. पूरे प्रचार के दौरान उन्हें पार्टी प्रत्याशी के मंच पर एक बार भी नहीं देखा गया.
चंद्रशेखर के निधन के बाद शुरू किया था सियासी सफर
चंद्रशेखर जब तक जीवित रहे, बलिया संसदीय सीट से सांसद निर्वाचित होते रहे. सन 2004 के लोकसभा चुनाव में वह आखिरी बार बलिया से सांसद निर्वाचित हुए थे. 2007 में उनका निधन हुआ और इसके बाद रिक्त हुई बलिया संसदीय सीट के लिए हुए उपचुनाव से नीरज शेखर के सियासी सफर की शुरुआत हुई. चंद्रशेखर की विरासत कौन संभालेगा, इसे लेकर अटकलों का दौर चल रहा था. चंद्रशेखर सही मायनों में समाजवादी राजनीति के पैरोकार थे. इसे उनके आचरण ने भी साबित किया. परिवारवाद के धुर विरोधी चंद्रशेखर के जीवनकाल में उनके परिवार का कोई सदस्य राजनीति में सक्रिय नहीं था.
2007 में मिटा दी थी पिता की एक निशानी
सन 2007 के उपचुनाव में नीरज शेखर ने स्वयं को पिता की राजनीतिक विरासत के वारिस के तौर पर तो पेश कर दिया, लेकिन उसी पिता की एक निशानी मिटा दी. नीरज ने चंद्रशेखर की बनाई पार्टी सजपा का सपा में विलय कर दिया और बरगद के पेड़ की जगह साइकिल के निशान पर चुनाव लड़ा. यह बलिया वासियों के लिए भी संसदीय चुनाव में नई बात थी. सपा ने कभी भी चंद्रशेखर के खिलाफ प्रत्याशी नहीं उतारा था. ऐसे में अब सवाल उठने लगा है कि नीरज पिता की राह से भी अलग जाकर आखिर क्या संदेश देना चाहते हैं.
चंद्रशेखर ने पदयात्रा कर उड़ा दी थी इंदिरा की नींद
युवा तुर्क के नाम से प्रसिद्ध देश के एकमात्र समाजवादी प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की पहचान ऐसे नेता के रूप में है, जिसे शीर्ष से कम मंजूर नहीं होता था. चाहे वह सत्ता हो या संगठन, किसान परिवार में जन्में चंद्रशेखर अपनी इस लाइन पर बरकरार भी रहे. आपातकाल विरोधी लहर में 1977 का चुनाव जीतकर पहली बार बलिया से संसद पहुंचे चंद्रशेखर ने तब जनता दल सरकार में मंत्री पद ग्रहण करने की बजाय पार्टी के अध्यक्ष पद को तवज्जो दी. बाद में अपनी पार्टी बना ली और आजीवन अध्यक्ष रहे. चंद्रशेखर मंत्री बने भी तो सीधे प्रधानमंत्री. चंद्रशेखर ने जनता पार्टी का अध्यक्ष रहते हुए कन्याकुमारी से नई दिल्ली के राजघाट तक पदयात्रा निकाल तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की नींद उड़ा दी थी.
भाजपा नेताओं से बेहतर रहे रिश्ते, पर कभी नहीं किया समर्थन
चंद्रशेखर के खिलाफ भाजपा ने लगभग हर लोकसभा चुनाव में उम्मीदवार उतारे, लेकिन चुनाव जीतने के लिए जोर कभी नहीं लगाया. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के करीब रहे जानकारों की मानें तो उम्मीदवार चयन के लिए पार्टी की बैठक में चंद्रशेखर की सीट बलिया का नाम आते ही वाजपेयी ‘आगे बढ़ो-आगे बढ़ो’ कहने लगते. लोग समझ जाते कि बलिया सीट पर चंद्रशेखर के खिलाफ बहुत ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं. भाजपा नेताओं के साथ चंद्रशेखर के रिश्ते हमेशा बेहतर रहे, लेकिन उन्होंने कभी भी भाजपा की विचारधारा का समर्थन नहीं किया. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को ताउम्र ‘गुरुजी’ शब्द से ही संबोधित किया, लेकिन सदन में हमेशा मुखर विरोध भी किया.
सत्ता से ऊपर उठकर जनसरोकारों के लिए किया संघर्ष, चंदे से लड़ा चुनाव
चंद्रशेखर ने हमेशा सत्ता से ऊपर उठकर जनसरोकारों के लिए संघर्ष किया. कांग्रेस में रहते हुए भी समाजवादी सिद्धांतों पर अडिग रहे और जब सवाल उठे तो कहा कि या तो कांग्रेस समाजवादी राह पर चल पड़ेगी या फिर टूट जाएगी. चंद्रशेखर प्रधानमंत्री रहते हुए भी किसानों के खेतों में पहुंच जाते थे. वह चुनावी खर्च के लिए पैसे चंदे से एकत्रित करते थे. उनकी जनसभाओं में अंगोछा या गमछा फैलाकर घुमाया जाता था.
सियासत और सत्ता, दोनों के शीर्ष तक का सफर तय करने और लाख झंझावतों से दो-चार होने, कांग्रेस में होते हुए भी आपातकाल का मुखर विरोध और जेपी आंदोलन का समर्थन कर पुलिस-प्रशासन की प्रताड़ना झेलने वाले चंद्रशेखर के पुत्र का समाजवादी खड़ाऊं उतारकर भाजपा का दामन थाम लेना अपने पिता के सिद्धांतों के खिलाफ नहीं तो क्या है?