अनुपम कुमार सिंह
राज्य में भाजपा की सरकार। केंद्र में भाजपा की सरकार। लेकिन मार दिए गए एक भाजपा विधायक को न्याय नहीं मिल पाया। जी हाँ, आपने सही पढ़ा। 2005 में हुई हत्या के मामले में आज तक कोई अपराधी नहीं! किस पर दोष लगाया जाए? क्या सरकारें अपना काम करने में विफल रहीं? क्या न्यायपालिका को सच नहीं दिख पाया? या फिर मुख़्तार अंसारी और उसके परिवार का रसूख सब पर भारी पर गया? आज इसकी चर्चा हम इसीलिए कर रहे हैं क्योंकि मुख़्तार अंसारी और उसके भाई बसपा सांसद अफ़ज़ल अंसारी को इस मामले में दिल्ली की एक अदालत ने बरी कर दिया। आरोपितों को ‘संदेह का लाभ’ देते हुए बरी किया गया।
सबसे पहले इस ख़बर की बात करेंगे। उसके बाद हम इस घटना को रीविजिट करने 15 वर्ष पीछे जाएँगे और फिर हम वापस लौट कर यह देखने की कोशिश करेंगे कि आख़िर इतनी बड़ी हत्या के मामले में आरोपितों के बरी हो जाने, या फिर दोषियों के पकड़ में न आने के पीछे का कारण क्या है? जिम्मेदारी किसकी है? कृष्णनंदन राय की पत्नी अलका राय की याचिका पर इस केस को दिल्ली ट्रांसफर किया गया था क्योंकि यूपी में इसके निष्पक्ष सुनवाई होने की उम्मीद परिजनों को नहीं थी। दिल्ली की अदालत ने ‘साक्ष्य के अभाव’ में उन आरोपितों को भी बरी कर दिया।
कोर्ट का कहना था कि अभियोजन पक्ष आरोपितों का दोष साबित करने में नाकाम रहा। अदालत 2 अन्य आरोपितों को पहले ही बरी कर चुकी है। सीबीआई ने मामले की लम्बी जाँच की लेकिन दोष नहीं साबित कर पाई। ये थी ख़बर। अब आते हैं अपने सवाल पर। मुख़्तार अंसारी, उसके भाई व बहनोई के ख़िलाफ़ कोई भी अपराध साबित करने में सीबीआई व पुलिस नाकाम क्यों रही? यह सवाल इसीलिए जायज हो जाता है क्योंकि दिसंबर 2005 को एसटीएफ एसएसपी अखिल कुमार ने साफ़-साफ़ कहा था कि ये हत्या मुख़्तार अंसारी ने कराई है। अब जरा पीछे जाकर इस हत्या की वारदात के बारे में जानते हैं।
गवाहों की रहस्यमयी मौतें
लेकिन उससे पहले इस घटना से जुड़ी कुछ रहस्यमयी बातों को जानते हैं, जिसके बाद आपको पता चलेगा कि क़ानून की देवी की आँखों में सचमुच पट्टियाँ बंधी होती हैं, जिसके पार उन्हें कुछ नहीं दिखता। जब कृष्णानंद राय व उनके सहयोगियों की हत्या हुई, उस समय कोई ऐसा भी था जो बच गया था। उस व्यक्ति का नाम था- शशिकांत राय। वह एक तरह से इस घटना के मुख्य चश्मदीद गवाह थे। थे इसलिए, क्योंकि अब वो नहीं रहे। सैंकड़ों राउंड गोलियों के बीच ज़िंदा बच जाने वाला शख़्श शराब पीने के बाद संदिग्ध स्थिति में सड़क पर बेहोश पड़ा पाया गया, जिसके बाद उसकी मौत हो गई।
एक और गवाह था, उनका नाम था- मनोज गौड़। यह भी था, क्योंकि अब ये भी नहीं रहे। सितंबर 2006 को मनोज गौड़ की भी संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई। इन दोनों घटनाओं के बीच मात्र डेढ़ महीने का अंतर था। उन्हें अस्पताल ले जाया गया था, जहाँ उन्हें डॉक्टरों ने ‘ब्रांको न्यूमोनिया’ की वजह से मृत करार दिया। जब वो अस्पताल में भर्ती थे, तब प्रशासन द्वारा किसी भी प्रकार की सुरक्षा मुहैया नहीं कराई गई। दो अन्य गवाह भी थे- संजीव राय और मुन्ना राय। ये दोनों अभी भी हैं, लेकिन गाज़ीपुर में नहीं है। दोनों ही रहस्यमयी तरीके से किसी अन्य ज़िले में जाकर बस गए। और दोनों ने अपने बयान भी अदालत में दर्ज नहीं कराए।
क्या हुआ था उस दिन?
वह 29 नवंबर 2005 का दिन था, जिसे गाज़ीपुर वाले आज भी ‘ब्लैक डे’ कहते हैं। कृष्णानंद राय मुहम्मदाबाद से विधायक थे। वह पिछली केंद्र सरकार में 5 वर्षों तक मंत्री रहे मनोज सिन्हा के क़रीबी भी थे। वही मनोज सिन्हा, जिन्हें गाज़ीपुर से हरा कर मुख़्तार अंसारी का भाई अफ़ज़ल अंसारी इस वर्ष सांसद बना है। यह बात बहुत कम ही लोगों को पता है कि कृष्णानदान राय इस घटना में मारे जाने वाले अकेले व्यक्ति नहीं थे बल्कि उनके साथ उनके 6 अन्य सहयोगियों की भी जान गई थी। ये हत्या इतनी वीभत्स थी और इतने बेख़ौफ़ तरीके से अंजाम दिया गया था, जिससे कोई भी इस बात का अंदाजा लगा सकता है कि इसके पीछे कितनी बड़ी ताक़तें थीं।
शासन से बेख़ौफ़ हत्यारों ने 400 राउंड गोलियाँ चलाईं थीं। घटना के बाद पोस्टमॉर्टम के दौरान मृतकों के शरीर से 67 गोलियाँ निकाली गईं। इतनी ज्यादा संख्या में बुलेट अंदर धँसने के बाद शायद ही कोई ज़िंदा बचे, वो भी तब जब ये गोलियाँ एके-47 दागी गई हों। विधायक राय लोगों में लोकप्रिय थे, इस कारण जबरदस्त विरोध प्रदर्शन हुआ। विरोध प्रदर्शन करने वालों में कई ऐसे लोग भी शामिल थे, जो आज यूपी व दिल्ली में सत्ता के सर्वेसर्वा हैं। आपको बता दें कि देश के वर्तमान रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने उस वक़्त इस हत्या के विरोध में धरना दिया था। राजनाथ ने एक-दो दिन नहीं बल्कि 14 दिनों तक धरना दिया था और उनका धरना ख़त्म कराने के लिए ख़ुद पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को आना पड़ा था।
5 वर्षों तक राजनाथ सिंह देश के गृह मंत्री रहे और उनके कार्यकाल के दौरान भी यह जाँच अहम प्रक्रियाओं से गुजरी लेकिन हत्यारा कोई नहीं! उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ दोषियों को न बख्शने की बात करते हैं और क़ानून व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए पुलिस को उन्होंने सशक्त किया है लेकिन हत्यारा कोई नहीं! सीबीआई जैसी एजेंसियाँ कथित बाहुबलियों और बड़ी मछलियों पर हाथ डालने से न हिचकने का दावा करती हैं लेकिन हत्यारा कोई नहीं! 15 वर्षों तक 7 आरोपितों पर मामला चलता है और विभिन्न संस्थाएँ अपने-अपने स्तर से जाँच करती हैं लेकिन हत्यारा कोई नहीं! उस समय की सपा सरकार का दौर गया, मनोज सिन्हा 5 साल मंत्री रहे लेकिन हत्यारा कोई नहीं!
कृष्णानंद राय हत्याकांड: नहीं मिला न्याय
तो फिर 400 राउंड गोलियाँ किसने चलाई? नहीं पता चल पाएगा। शायद इसलिए नहीं चल पाएगा क्योंकि सलमान ख़ान ने हिरन मारा या नहीं, यही मामला 20 वर्षों से अटका पड़ा है। 1998 में एक काला हिरन का शिकार कर लिया जाता है और ग्लैमर वर्ल्ड के आरोपितों के ख़िलाफ़ दो दशक तक चली जाँच के बाद भी मामले में क्या डेवलपमेंट्स हुए हैं, कुछ भी क्लियर नहीं है। ऐसे कैसे मिलेगा न्याय? जिस देश की न्याय व्यवस्था एक जानवर के शिकारी को सज़ा देने में नाकाम रही है, उससे एक नेता के कातिलों को सज़ा दिलाने की उम्मीद ही बेमानी है। सवाल सिर्फ़ विधायक का नहीं है बल्कि उनके साथ मारे गए 6 अन्य लोगों का भी है।
हो सकता है विधायक का परिवार संपन्न रहा हो और न्याय के लिए वह आगे की प्रक्रिया में जा सकता है लेकिन उनके साथ मारे गए उनके 6 सहयोगियों के परिजनों की आशाएँ भी इसी मामले से जुड़ी हैं। विधायक की पत्नी अलका राय ने सुप्रीम कोर्ट से अपील की थी कि प्रदेश में सुनवाई होने से जवानों की जान को ख़तरा हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस बात को स्वीकार किया, तभी मामला प्रदेश से बाहर ट्रांसफर किया गया। इससे समझा जा सकता है कि कृष्णनंदन राय के हत्यारों के पीछे कितनी बड़ी ताक़तें काम कर रही थीं। जिसके कारण मामले को यूपी से दिल्ली भेजा जा सकता है, वो कुछ भी कर सकते हैं, कम से कम सज़ा से तो बच ही सकते हैं!
गाज़ीपुर की जनता भी उन्हें भूल जाएगी। ऐसा ही होता आया है। भले ही उनकी शवयात्रा में 5 किलोमीटर लम्बी लाइन लगी हो, जनता क्यों इस पचड़े में पड़ना चाहेगी क्योंकि उसे भी पता है कि जो अदालत और जाँच एजेंसियों को धता बता सकता है वो कुछ भी कर सकता है। क्या कृष्णनंदन राय ने ख़ुद को ही गोली मार ली? क्या उन्होंने 67 बुलेट्स ख़ुद अपने और अपने सहयोगियों के शरीर में घुसेड़ दिए? अफसोस, इन सवालों के जवाब शायद फाइलों में धूल फाँकते रह जाएँगे न्याय के इंतजार में।