मृणाल प्रेम
दो मॉब लिंचिंग, दो हत्याएँ, दोनों में हत्यारों के झुण्ड पर आरोप- लेकिन दोनों पर मीडिया गिरोह की अलग-अलग कवरेज। तबरेज़ अंसारी की मौत पर रुदाली करने वाले सभी मीडिया गिरोहों में मंगरू की वैसी ही मौत पर सन्नाटा है। क्योंकि मंगरू की मौत में ‘एंगल’ नहीं है। वह मुसलमान नहीं था, जनजातीय था- और न ही उसे मारने वाले तथाकथित ‘अपर कास्ट’ वाले। बल्कि मारने वाले तो पत्रकारिता के समुदाय विशेष के प्रिय समुदाय विशेष के थे- नाम था साजिद, आज़म और रमज़ान।
शायद इसीलिए ‘tabrez’ या ‘tabrez ansari’ के नाम से सर्च करने पर खबरों का अंबार लग जा रहा है, और वहीं ‘mangru’, ‘mangru lynching’, ‘magru’ आदि कुछ भी लिख कर देख लीजिए- खबर या ‘न्यूज़’ ढूँढ़ने को आप तरस जाएँगे। तबरेज़ पर चार-चार एंगल से लिखवाने वालों ने या तो मंगरू की मौत को कवर करना ही ज़रूरी नहीं समझा, और अगर लिखा भी गूगल की ‘सर्च अल्गोरिथम’ और ‘न्यूज़ अल्गोरिदम’ को ‘गेम’ कर अपने ही कोरम पूरा करने वाले लेखों को ‘दफ़ना’ दिया।
एक-एक इमेज को देखिए। ध्यान से। क्लिक करके देखिए। केवल एक ऑपइंडिया के अलावा किसी भी और की मंगरू खान की कवरेज नहीं मिलेगी आपको। टेलीग्राफ़ का एक लेख भूले-भटके आया भी तो उसकी भाषा देखिए। ‘duo’, ‘two youths’। और अब इसे अख़लाक़ से लेकर तबरेज़ तक हर उस मॉब लिंचिंग से तुलना कीजिए, जिसमें हिन्दुओं के हाथों मुसलमानों की, या कथित अपर कास्ट हिन्दुओं के हाथों दलित हिन्दुओं की पिटाई हुई है।
चूँकि वह ‘नैरेटिव’ में फिट हो सकने वाली घटना नहीं थी, यह ‘डरा हुआ मुसलमान’ के फर्जीवाड़े का समर्थन नहीं करती, इसलिए पत्रकारिता का समुदाय विशेष मंगरू की हत्या पर चुप है।
यह चुप्पी तब भी थी जब…
यह चुप्पी केवल आज की नहीं है, केवल मंगरू के मामले में नहीं है। यह हर उस मामले में ओढ़ा गया सन्नाटा है, जब ‘डरा हुआ मुसलमान’ कोई अपराध करता है, और भुक्तभोगी कोई हिन्दू होता है।
कालीचक याद है, जब करीब तीन लाख मुसलमानों ने ऐसी आगजनी की कि दंगे जैसे हालात हो गए थे? तब किसी मीडिया गिरोह के न्यूज़रूम ने ‘क्या मुसलमान कट्टर हो रहे हैं?’ का सवाल नहीं पूछा। उसी साल (2016) में बंगाल के कुछ मुसलमानों ने ईद से एक दिन पहले ही ईद का जुलूस निकालना शुरू कर दिया, ताकि हिन्दुओं को मार्गशीर्ष पूर्णिमा मनाने से रोका जा सके। आपत्ति जताने पर हिन्दुओं के घर जला डाले गए और ‘पाकिस्तान ज़िंदाबाद’ के नारे लगे। वायर ने कितने लेख छापे इस पर?
बाड़मेर के मुसलमानों ने एक अनुसूचित जाति के व्यक्ति को, एक दलित को केवल इसलिए मौत के घाट उतार दियाकि उसने हिन्दू होकर एक मुसलमान लड़की से प्रेम करने की जुर्रत की थी। कहाँ था तब पत्रकारिता का समुदाय विशेष? तमिलनाडु के कुम्भकोणम में रामालिंगम की हत्या कर दी गई। इस बर्बरतापूर्ण हत्या में रामलिंगम के रात में घर लौटते वक़्त कुछ अज्ञात लोगों ने उसके हाथ काट दिए जिससे अत्यधिक रक्स्राव से रामालिंगम की मृत्यु हो गई। एक गर्भवती मुसलमान महिला को केवल इसलिए उसके परिवार ने (जिसमें उसकी माँ भी थी) ज़िंदा जला दिया क्योंकि वह हिन्दू लड़के से शादी कर उसके बच्चे की मॉं बनने वाली थी।
ऐसी घटनाएँ दर्जनों हैं– मैं गिना-गिना कर थक जाऊँगा, आप लिंक खोलकर पढ़ते-पढ़ते। इन सब घटनाओं में लेकिन जो चीज़ समान है, वह है मीडिया का सन्नाटा। कहीं मुस्लिमों में फैले कट्टरपंथ पर चर्चा करना तो दूर, कभी इन घटनाओं के अस्तित्व पर ही मौन साध लिया जाता है, कभी इनमें ‘कम्यूनल एंगल’ का होना नकारा जाता है, कभी यह ज्ञान दिया जाता है कि कुछ लोगों की करनी से करोड़ों लोगों को नहीं तौलना चाहिए। लेकिन जहाँ कहीं मामला ‘पलटने’ की ‘महक’ भर आ जाए, भूखे लकड़बग्घे की तरह झपटते हुए पत्रकारिता का समुदाय विशेष अपना ही ज्ञान बिसरा जाता है।
‘आआआह… हिन्दू फ़ासीवाद’
चाहे मेरठ के एक कॉलेज की मुसलमान छात्रा मज़हबी उत्पीड़न का संदेहास्पद दावा करे, घटना रोड रेज में हुई मारपीट की हो (जो दिल्ली-एनसीआर का एक कुरूप और निंदनीय पर बिलकुल ‘सेक्युलर’ सच है), या एक मुसलमान ने ही दूसरे मुस्लिम को भूमि-विवाद में मार दिया हो- मीडिया गिरोह ने हर उस घटना में हिन्दुओं को बदनाम करने का भरसक प्रयास किया है, जहाँ मुसलमान ‘विक्टिम’ हो। न उस समय न्याय का सिद्धांत ज़रूरी रहा, न ये याद रखना ज़रूरी समझा कि मीडिया ट्रायल नहीं होना चाहिए। यहाँ तक कि घटनाओं के फ़र्ज़ी निकलने पर भी प्रपंच बंद नहीं हुआ।
हत्या हत्या होती है, निंदनीय और दंडनीय होती है
कानून का फैसला आने के पहले तक कोई भी यकीन के साथ नहीं कह सकता कि तबरेज़ अंसारी को चोर होने के कारण मार डाला गया या मुसलमान होने के कारण- जुनैद के मामले में आखिर यही हुआ था; सीट-विवाद में हुई हत्या को बेवजह हिन्दू-मुस्लिम ‘एंगल’ दे दिया गया था। और मीडिया गिरोह ने ‘अलिखित’ नियम स्थापित कर दिया था कि मुसलमान की तो जान इतनी कीमती है कि उसमें ‘रिलिजियस एंगल’ ज़मीन खोद कर लाया जाए, अगर मामले को खोदने भर से न मिले; लेकिन एक हिन्दू की जान की इतनी कीमत नहीं है कि मज़हबी कारण से भी उसका क़त्ल होने पर मज़हबी कारण को उजागर किया जाए।
हर इंसान की जान इस देश के संविधान में बराबर आँकी गई है। बेहतर होगा कि मीडिया गिरोह दोगलापन बंद कर उस संविधान की कम-से-कम इस एक बात को खुद मानना शुरू कर दे, जिस संविधान का हवाला दे वह हर समय हर असहमति का गला ‘आप तो संविधान के ख़िलाफ़ हैं मतलब’ कह कर दबाता रहता है।
सभार