क्रिकेट के सर्वकालिक महान बल्लेबाज विवियन रिचर्डस के बारे में कहा जाता है कि पिच पर उनकी आक्रामकता सिर्फ खेल से जुड़ी नहीं थी. उस दौर में श्वेत-अश्वेत वाला नस्लीय विभाजन क्रिकेट में भी दिखता था. कहते हैं कि विरोधी टीमों को नेस्तनाबूत करने वाली आक्रामकता विवियन में इसी से पैदा हुई. वे कहते भी थे, ‘क्रिकेट का बल्ला मेरी तलवार है.’ इस ‘तलवार’ से उन्होंने कई सालों तक श्वेत नस्ल के लोगों के सामने प्रतिरोध दर्ज कराया. प्रतिरोध की इस अभिव्यक्ति के लिए उनके सामने क्रिकेट से अच्छा कोई मंच नहीं था.
यह सिर्फ विवियन के मामले में ही नहीं है. क्रिकेट ऐसा खेल रहा है जो पहली दुनिया से तीसरी दुनिया तक सभी देशों में खेला जाता है. जाहिर है कि इस मंच से राजनीतिक संदेशों की गूंज करोड़ों लोगों तक सुनाई देती है. जब ऐसी कोई घटना विश्वकप में हो तो उसका असर कुछ ज्यादा ही होता है. यहां हम क्रिकेट विश्व कप के तीन टूर्नामेंटों की बात कर रहे हैं जो खेल के अलावा कुछ राजनीतिक संदेशों के लिए भी याद किए जाते हैं.
श्रीलंका तमिल विवाद – 1975 का विश्व कप
पहले विश्वकप के सातवें मैच को याद करने की यह सबसे अलग वजह है. लंदन के ओवल ग्राउंड में उस दिन ऑस्ट्रेलिया और श्रीलंका का मैच हो रहा था. ऑस्ट्रेलिया की टीम बैटिंग कर रही थी. अभी मैच का छठा ओवर खत्म ही हुआ था कि अचानक मैदान के भीतर तकरीबन 12-15 तमिल छात्रों का समूह घुस आया. वे हाथों में पोस्टर लिए हुए थे. उस समय आज की तरह सुरक्षा के कड़े इंतजाम नहीं हुआ करते थे. इससे पहले की खिलाड़ी या स्टेडियम स्टाफ कुछ समझ पाता, छात्र पिच पर पहुंचकर लेट गए और श्रीलंका में तमिल लोगों पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ नारे लगाने लगे. हालांकि यह प्रदर्शन ज्यादा देर नहीं चला. जल्दी ही इन छात्रों को स्टेडियम से बाहर कर दिया गया. तमिल लोगों के अधिकारों के लिए यह अपनी तरह का सबसे अनूठा प्रदर्शन था. इस घटना के बाद श्रीलंका के अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैचों में स्टेडियम के भीतर ऐसे कई प्रदर्शन देखने को मिले लेकिन, यह अकेला मामला है जब प्रदर्शनकारी मैदान में घुस गए थे.
दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद नीति – 1992 का विश्वकप
आईसीसी ने सरकार की रंगभेद नीति के चलते दक्षिण अफ्रीकी क्रिकेट टीम पर 1971 में प्रतिबंध लगाया था. यह 22 साल तक चला. 1990 में जब नेल्सन मंडेला की रिहाई हुई तो अनौपचारिक रूप से रंगभेद की नीति खत्म हो गई. हालांकि तुरंत ही इसकी कोई आधिकारिक घोषणा नहीं हुई.
1992 में दक्षिण अफ्रीका में पहला लोकतांत्रिक चुनाव और रंगभेद नीति पर जनमत संग्रह होना था. इसी समय क्रिकेट विश्वकप भी था. अफ्रीकी टीम के इसमें शामिल होने के बारे में पहले से कोई चर्चा नहीं थी. लेकिन मंडेला चाहते थे कि दक्षिण अफ्रीका इसमें खेले. वे इस आयोजन को देश के एकीकरण के लिए एक बड़े मौके की तरह देख रहे थे. उनकी पार्टी – ‘अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस’ ने जब आईसीसी से यह अनुरोध किया तो दक्षिण अफ्रीका को पहली बार विश्वकप खेलने का मौका मिल गया. लेकिन इस शर्त के साथ कि यदि जनमत संग्रह का नतीजा रंगभेद नीति जारी रखने के पक्ष में रहा तो टीम को तुरंत टूर्नामेंट से बाहर कर दिया जाएगा.
अफ्रीकी टीम इस विश्वकप में बहुत अच्छा खेली और सेमीफाइनल तक पहुंच गई. सेमीफाइनल के पहले ही रंगभेद नीति पर हुए जनमत संग्रह का नतीजा आना था. आखिरकार, इसमें दक्षिण अफ्रीका के 67 प्रतिशत लोगों ने इसे खारिज कर दिया और उसकी क्रिकेट टीम को सेमीफाइनल खेलने का मौका मिल गया. हालांकि, वो यह मैच इंग्लैंड से हार गई थी. दक्षिण अफ्रीका की उस टीम में एक अश्वेत खिलाड़ी (ओमर हेनरी) भी शामिल था. माना जाता है इस खिलाड़ी के साथ दक्षिण अफ्रीकी टीम का विश्वकप में शामिल होना और उसका अच्छा प्रदर्शन रंगभेद की विभाजन रेखा को धुंधला करने में बहुत मददगार साबित हुआ.
जिम्बॉब्वे की तानाशाही सरकार – 2003 का विश्वकप
बीते कुछ सालों में यदि जिम्बॉब्वे की क्रिकेट टीम बद से बदतर हुई है तो इसमें वहां की सरकार और उसमें भी वहां के पूर्व राष्ट्रपति रॉबर्ट मुगाबे का बहुत योगदान है. मुगाबे 1988 से 2017 तक देश के राष्ट्रपति थे. उनके ऊपर चुनावों में धांधली, भ्रष्टाचार और विरोधियों के उत्पीड़न के आरोप लगते रहे हैं. स्थानीय स्तर पर तो उनके खिलाफ प्रदर्शन होते ही रहे हैं लेकिन, पहली बार अंतरराष्ट्रीय मंच पर मुगाबे सरकार के खिलाफ विरोध की झलक 2003 के विश्वकप में देखने को मिली.
यह टूर्नामेंट दक्षिण अफ्रीका, जिम्बॉब्वे और कीनिया में संयुक्त रूप से आयोजित हुआ था. जिम्बॉब्वे टीम का पहला मैच राजधानी हरारे में था. इस मैच के दौरान जिम्बॉब्वे के एंडी फ्लावर और हेनरी ओलांगा ने काली पट्टी पहनकर मुगाबे की दमनकारी नीतियों का विरोध किया था. मैच के बाद बाकायद प्रेस कॉन्फ्रेंस कर इन दोनों ने बताया कि उनके देश में लोकतंत्र की हत्या हो रही है और वे इसके खिलाफ अपना विरोध दर्ज कर रहे हैं. इस घटना के बाद जिम्बॉब्वे सरकार ने इन दोनों के क्रिकेट खेलने पर आजीवन प्रतिबंध लगा दिया. इस समय फ्लावर और ओलांगा इंग्लैंड में निर्वासित जीवन बिता रहे हैं.