मुकेश कुमार
एक ऐंकर स्टूडियो में ज़ोर-ज़ोर से चीखते हुए ऐसे दौड़ रहा था जैसे विजय-जुलूस का नेतृत्व कर रहा हो। उत्तेजना में वह आँए-बाएं बके जा रहा है। उससे ऐंकरिंग सँभल नहीं रही। ऐसा लगता है कि वह सन्निपात मे स्टूडियो से बाहर निकलकर लाल किले पर चढ़ जाएगा और वहीं से राष्ट्र को संबोधित करने लगेगा। वह क्रोध से काँप रहा है और हर उस शख्स को भस्म कर देना चाहता है जो उससे सहमत नहीं है।
एक ऐंकर ने खुद को ये सब करने से रोका मगर उसके चेहरे से मेकअप के साथ खुशी उधड़ी जा रही थी। वह जोश में थी मगर उसे पता था कि किसे बधाई देना है और किसकी अंत्येष्टि आज ही कर देनी है। वह किसी के प्रति अत्यंत नरम हो जाती है और किसी पर बुरी तरह बरस पड़ती है। उसे लग रहा है कि वह जज है और राष्ट्रवादियों की तरह फ़ैसला सुनाना कर्तव्य।
एक ऐंकर पगलाया सा अपनी पहचान अपने आका के नाम से कर रहा है। वह भूल चुका है कि वह क्या है और उसे ऐसे मौके पर क्या करना चाहिए। वह तो आज पूरी दुनिया को बता देने पर आमादा है कि वह क्या था और क्या है। आगे की योजना भी उसके चेहरे पर लिखी हुई है।
एक ऐंकर अपने साथी ऐकरों और उन पत्रकारों पर ही रफाएल लेकर चढ़ाई कर रहा है जो उससे सहमति प्रकट नहीं कर रहे। वह उन्हें देशद्रोही या टुकड़े-टुकड़े गैंग कह देना चाहता है, मगर मजबूरी में खीझ कर रह जाता है।
कुछ और ऐंकर हैं जिन्हें आज ही अपनी जाति-धर्म का पता चला है या हो सकता है पता रहा हो मगर आज ऐलानिया तौर पर दुनिया को बता देना चाहते हों। उनके मालिकान ने भी उन्हें खुल्ला छोड़ दिया है कि जा भाई….जा…..अपनी ज़िंदगी जी ले।
दरअसल, बरसों से दबी तमन्ना बेकाबू हो रही थी, रोकना मुश्किल हो गया था। उत्साह नदी में आई बाढ़ की तरह अनियंत्रित होकर सारे बाँध तोड़कर स्क्रीन पर फैल जाना चाहता है। उनकी भावनाएं हर बंधन, हर दबाव, हर लोकलाज को छोड़कर और हर खूँटा तोड़कर सामने आने को बेताब हुए जा रही थीं।
ये मौक़ा बरसों के त्याग और तपस्या के बाद आया था। जाने कितनी दुआएं कीं, किस-किस को नहीं बद्दुआएं दीं, कहाँ-कहाँ नहीं मत्था टेका, किस-किस का माथा नहीं फोड़ा, क्या-क्या करम-धतकरम नहीं किए, तब ये दिन देखने को नसीब हुआ। ज़ाहिर ये तो होना ही था।
लोग कहते हैं किसी ऐकर को इस तरह खुशी को दिखाना चाहिए, लेकिन वे नहीं समझ पा रहे क्यों? और समझ भी रहे हैं तो छिपाएं कैसे? छिपाना मुश्किल हो रहा है। पेट में मरोड़े उठ रही हैं, भेजा ग़ज़ब का शोर कर रहा है, दिल बल्लियों उछले जा रहा है। हाथ-पाँव चलने को बेचैन हुए जा रहे हैं। कानून का सम्मान न करना होता तो वे कब के चल भी जाते। ऐसे में छिपाना तो उसी तरह मुश्किल था जैसे गर्भवती स्त्री के लिए गर्भ को छिपाना। और यहाँ तो गर्भ का मसला ही नहीं रह। यहाँ तो उम्मीद जन्म लेकर काँव-काँव कर रही है। अब जिसे पूरी दुनिया सुन रही हो, उसे कैसे छिपाया जा सकता है?
अब इसमें लज्जा की क्या बात है? पत्रकार हैं तो क्या घूँघट काढ़कर बैठे रहें? मन की बात देशवासियों से साझा करने में क्या बुराई है? इतने दिन तो छिपाकर रखी…घुटते रहे अंदर ही अंदर। अब मौक़ा मिला है तो लजाकर बैठ जाएं?
ज़रा समझिए….अब मुख और मुखौटा वाला ज़माना ख़त्म हो गया है भाई। कभी रही होगी मगर अब छिपाने की ज़रूरत नहीं रही। अब तो खुलकर ज़ाहिर करने का मौक़ा है, दुनिया को बताने का मौक़ा है कि जी हाँ, हम वही हैं। हुँकार और ललकार कर बताने का मौक़ा है। आख़िर हमने जंग जीती है। हम पचासों साल से लड़ाई लड़ रहे थे। कोई ये न पूछे कि कौन सी लड़ाई, क्योंकि पूछने की ज़रूरत ही नहीं है। हमारे झंडे को गौर से देखो, हमारे फंडे को ध्यान से समझो और हमारे डंडे के खौफ़ को महसूस करो, सब कुछ अपने आप समझ में आ जाएगा। हमारी बोली में, हमारी भावनाओं में सब कुछ स्पष्ट है। जिसे फिर भी समझ में नहीं आता उसे हमारे लोग घर आकर समझा देंगे, ठीक है?
हम इसलिए भी अब कुछ छिपाना ज़रूरी नहीं समझते क्योंकि बताने में ही फ़ायदा है। हम बताएंगे नहीं तो उनको पता कैसे चलेगा कि हम उनके कौन है और उनके लिए क्या-क्या करते रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे। उनको पता चलना चाहिए कि हमारे लिए, हमारा मतलब हमारे मालिकों के लिए उन्हें क्या-क्या करना है।
ये तो आपको हम बता ही चुके हैं कि हम तो आपके निष्ठावान सेवक हैं, मगर हमारी निष्ठा तो मालिकों के हिसाब से इधर-उधर होती रहती है। आपने उसे नहीं साधा तो कल को हमें वह भी करना पड़ सकता है जो हम वास्तव में करना नहीं चाहते। अब हम तो फकीर हैं नहीं कि झोला उठाकर चले जाएंगे। बीवी-बच्चे हैं, ईएमआई है। कुछ बोलने के पहले दस बार आगे-पीछे सोचना पड़ता है।
अत: निवेदन है कि हमारी खुशी को समझिए, हम किसलिए जश्न मना रहे हैं, बूझिए। हमें राष्ट्र निर्माण में हाथ बँटाने दीजिए। हम जहाँ है वहीं से आपकी लड़ाई लड़ते रहेंगे। हर दिन किसी को उसकी औकात बताते रहेगे, किसी पर परमाणु बम गिराते रहेंगे।
और आप भी समझ जाएं तो सेहत के लिए बेहतर होगा। ये जो न्यू लो, न्यू लो का जाप करते हैं न अविलंब प्रभाव से बंद कर दीजिए। अब यही न्यू नार्मल है, तालमेल बिठा लेंगे तो अच्छा रहेगा। चुनाव हों या न हों, ईवीएम हो या न हो, अगले दस-बीस साल हम ही को रहना है और हम मुखौटों में नहीं असली मुखड़ों में दिखेंगे। कुछ समझे या नहीं।
(वरिष्ठ पत्रकार मुकेश कुमार के फेसबुक वॉल से)