मनीष कुमार
कांग्रेस और वामपंथी सहित सभी सेकुलरिस्ट पार्टियां विनायक दामोदर सावरकर का मूल्यांकन काफी संकुचित दायरे में करती है. वो सिर्फ वीर ही नहीं थे बल्कि वो महान क्रान्तिकारी, चिन्तक, लेखक और कवि भी थे. कांग्रेस जब अंग्रेजों का सेफ्टी वल्व बनकर ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठा की शपथ लिया करती थी. जब भारत के स्वतंत्रता संग्राम में गांधी और नेहरू का नामोनिशान नहीं था. जब कम्यूनिस्ट पार्टी, हिंदुस्तान ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में कहीं पैदा नहीं हई थी. उस वक्त, सावरकर भारत के सैकड़ो क्रांतिकारियों का फ्रेंड, गाईड और फिलोसोफर थे. सावरकर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध क्रांति की आग फैला रहे थे, अभिनव भारत नामक गुप्त क्रांतिकारी दल की पहुंच और सक्रियता को बढा रहे थे. युवकों को क्रांति के लिए तैयार कर रहे थे. दूसरों की तरह वो भी पढ़ाई करने इंग्लैंड पहुंचे लेकिन वो ऐशोआराम की जिंदगी बसर कर बैरिस्टर नहीं बनना चाहते थे. सावरकर ने ब्रिटिश सरकार के विरोध में पूरे युरोप में भारतीय युवाओं को संगठित कर क्रांति की लपटों को ब्रिटिश शासकों के दरवाजे तक पहुंचा चुके थे. उनकी प्रेरणा से मदनलाल ढ़ींगरा नामक युवक हंसते-हंसते फांसी के तख्ते पर झूल गया. इसमें कोई शक नहीं है कि सावरकर आजादी की लडाई के प्रथम पंक्ति के कांतिकारी थे. स्वतंत्रता संग्राम में शामिल कोई भी वामपंथी नेता ऐसा नहीं हुआ जो इनकी बराबरी कर सके. लेकिन, इतिहास से खिलवाड़ करने वाला एक गैंग आज इस क्रांतिकारी को गद्दार साबित करने की कायरतापूर्ण कोशिश कर रहा है.
वामपंथ की दिक्कत ये है कि वो हिंदुस्तान में एक भी ऐसा चिंतक पैदा नहीं कर सका जो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान क्रांतिकारियों का प्रेरणाश्रोत बन सके. आजादी के बाद वामपंथी इतिहासकार जिन क्रांतिकारियों को वामपंथी घोषित करने की कोशिश में लगे उन सभी ने सावरकर से न सिर्फ प्रेरणा ली बल्कि वो सीधे संपर्क में थे. दरअसल इंग्लैण्ड में रहकर सावरकर ने ‘द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस 1857’ नामक एक एतिहासिक किताब लिखी. यह किताब हिंदुस्तान के क्रांतिकारियों के लिए गीता से कम नहीं थी. सावरकर की किताब आने से पहले लोग सन संतावन की क्रांति को एक सैनिक विद्रोह ही मानते थे. कांग्रेस से जुड़े लोगों ने भी देशवासियों को यही समझा रखा था. लेकिन, इस किताब के जरिए सावरकर ने दो प्रमुख बातें बताई. पहला ये कि 1857 में जो कुछ हुआ वो दरअसल आजादी की पहली लड़ाई थी. दूसरा बात ये कि अंग्रेजों को हिंदुस्तान से भगाया जा सकता है. उन्होंने इस किताब में 1857 में हुई गलतियों को चिन्हित किया और ये बताया कि अगर ये गलतियां नहीं होती तो अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ जाता. हमें आजादी मिल जाती हमें गुलामी से मुक्ति मिल जाती. नोट करने वाली बात ये है कि इस किताब उन्होंने साफ साफ कहा था कि जब तक हिंदू और मुस्लिम एकजुट नहीं होंगे तब तक आजादी नहीं मिल सकती है. वो कभी विभाजन के पक्ष में नहीं थे. वो अखंड भारत चाहते थे. इस बात को बाबा भीमराव अंबेदकर भी लिख चुके हैं. लेकिन विडंबना ये है कुछ वामपंथी इतिहासकारों के झांसे में आकर कुछ थके हुए लेखक बड़ी बेशर्मी से ये लिख देते हैं कि सावरकर ने टू-नेशन थ्योरी थी.
1904 में सवारकर ने अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन बनाई.1905 में में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई. लंदन में वो 10 मई 1907 लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई. 1909 में सावरकर की किताब तैयार हो गई लेकिन ब्रिटिश सरकार ने सावरकर की किताब को छपने से पहले ही बैन कर दिया. इस पुस्तक किसी प्रकार गुप्त रूप से हॉलैंड से प्रकाशित हुई और इसकी कॉपी फ्रांस पहुँचायी गयीं. युरोप से भारत आने वाले युवकों द्वारा इस किताब को लाना ही एक क्रांतिकारी कार्य बन गया था. इसका दूसरा संस्करण जर्मनी में भीकाजी कामा ने प्रकाशित किया. इनके साथ ही मिल कर सावरकर देश का पहला राष्ट्रीय ध्वज को तैयार किया था. भगत सिंह ने वीर सावरकर की किताब का तीसरा एडीशन छपवाया और संगठन के लिए धन इकट्ठा करने के लिए उसकी कीमत भी ज्यादा रखी. इसके लिए उन्होंने बाकायदा रत्नागिरी में जाकर वीर सावरकर से मुलाकात की और उनसे उनकी पुस्तक को छापने की अनुमति ली. इस पुस्तक को देशभक्त लोग ढूंढ-ढूंढकर गीता की तरह पढ़ते थे. न जाने कितने युवा में इस किताब ने क्रांति की अग्नि सुलगायी.
सावरकर ने ‘फ्री इण्डिया सोसायटी’ का निर्माण किया जिससे वो अपने साथी भारतीय छात्रों को स्वतंत्रता के लिए लड़ने को प्रेरित करते थे. यही वजह है कि सावरकर से ब्रिटिश सरकार घबरा गयी. उन्हें एक हत्याकांड में फंसाकर गिरफ्तार कर लिया. हथकड़ियों और बेड़ियों में बांधकर जब समुद्री जहाज से उन्हें भारत लाया जा रहा था तब फ्रांस के बन्दरगाह मर्साई के निकट वे जहाज में से समुद्र में कूद पड़े. बाद में वो पकड़े गए और ब्रिटिश सरकार ने सावरकर को दो दो आजीवन कारावास की सजा देकर कालापानी यानि अंडमान के सेलुलर जेल में भेज दिया. वामपंथी इतिहासकार क्या ये बता सकते हैं कि वो कौन से दूसरे स्वतंत्रता सेनानी थी जिन्हें दो दो आजीवन कारावास यानि 50 साल कैद मिली हो?
सेलुलर जेल में वहां एक काल कोठरी में बंद कर दिया. नोट करने वाली बात ये है इस जेल में उनके भाई भी बंद थे लेकिन दोनों को कभी एक दूसरे के बारे में पता ही नहीं चला. जेल के दस्तावेज बताते हैं कि सावरकर को सबसे खतरनाक कैदी माना गया. उन्हें घोर यातनाएं दी गयीं. उन्हें समझ में आ गया था कि अगर वो बाहर नहीं आए तो उनका जीवन जेल के कालकोठऱी में ही नष्ट हो जाएगा. वो जेल से बाहर निकलने का रास्ता तलाशने लगे.
प्रथम विश्व युद्ध की स्थिति का लाभ उठाकर जेल से बाहर आने के लिए ब्रिटिश सरकार के नाम जिस पत्र को छोटे दिमागों के मूर्ख लोग माफीनामा बता रहे हैं, उन्हें उस पत्र पर ब्रिटिश सरकार की गोपनीय टिप्पणियों को पढ़ना चाहिए और अपने से ही सवाल पूछना चाहिए कि सावरकर की ओर से ऐसे कई पत्र आने के बाद भी ब्रिटिश सरकार ने उन्हें रिहा क्यों नहीं किया? उनका लक्ष्य जेल में सड़कर मरना नहीं येन-केन प्रकारेण बाहर निकलकर क्रांतिकारी आन्दोलन को आगे बढ़ाना है. जो लोग क्षमा याचना को साक्ष्य बता कर उनके योगदान पर कालिख पोतने की नीचता करते हैं वो इतिहासकार ये नहीं बताते कि स्वयं महात्मा गांधी ने 8 मई, 2021 को ‘यंग इंडिया’ में लिखा – ‘’अगर भारत इसी तरह सोया पड़ा रहा, तो मुझे डर है कि उसके ये दो निष्ठावान पुत्र (सावरकर के बड़े भाई भी कैद में थे) सदा के लिए हाथ से चले जाएंगे. एक सावरकर भाई (विनायक दामोदर सावरकर) को मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूं. मुझे लंदन में उनसे भेंट का सौभाग्य मिला है. वे बहादुर हैं, चतुर हैं, देशभक्त हैं. वे क्रांतिकारी हैं और इसे छिपाते नहीं हैं. मौजूदा शासन-प्रणाली की बुराई का सबसे भीषण रूप उन्होंने बहुत पहले, मुझसे भी काफी पहले देख लिया था. आज भारत को, अपने देश को दिलोजान से प्यार करने के अपराध में वे कालापानी भोग रहे हैं.”
समझने वाली बात ये है कि उस वक्त देश में असहयोग आंदोलन चल रहा था. गांधी जी की एक एक बात को ब्रिटिश सरकार गंभीरता से ले रही थी. गांधी जी विद्रोह और क्रांतिकारी आंदोलन के पक्ष में नहीं थे. उन्होंने सीधे तौर पर ब्रिटिश सरकार से सावरकर की रिहाई की अपील तो नहीं की लेकिन वल्लभ भाई पटेल और बाल गंगाधर तिलक ने ब्रिटिश कानून ना तोड़ने और विद्रोह ना करने की शर्त पर सावरकर की रिहाई की मांग कर रहे थे. इसी दबाव की वजह से ब्रिटिश सरकार ने सावरकर की सजा खत्म कर दी. उन्हें रिहा तो कर दिया गया लेकिन उन्हें रत्नागिरी से बाहर जाने की अनुमति नहीं थी. अब संकुचित मानसिकता वाले वामपंथी इतिहासकार और लेफ्ट लिबरल गैंग ये साबित करना चाहती है कि सावरकर डरपोक थे. गद्दार थे. उन्होंने अंग्रेजो के सामने घुटने टेक दिए. इनसे पूछना चाहिए कि स्वतंत्रता संग्राम में जितने भी नेता जेल गए क्या उन्होंने पूरी सजा काटी थी? इसका जवाब है नहीं. तो फिर सवाल ये कैसे सजा पूरा करने से पहले जेल से बाहर आ जाते थे? कानूनी प्रावधान का इस्तेमाल करके. तो फिर क्या इसे कायरता या गद्दारी बताया जा सकता है. वैचारिक दरिद्रता का इससे बड़ा उदाहरण कोई दूसरा नहीं हो सकता है.
ऐसा नहीं है कि सावरकर ने माफी मांग ली और घर आकर बैठ गए या अंग्रेजों के गुणगान में किताबें लिखने लगे. जैसा कि बहुत लोगों ने किया. हकीकत ये है कि स्थानबद्धता का काल समाप्त होने पर कांग्रेस और समाजवादी नेताओं ने इन्हें अपनी ओर खीचना चाहा. लेकिन, सावरकर ने हिन्दू महासभा को चुना. वो स्वतंत्रता संग्राम में फिर से एक्टिव हो गए. उन्होने ही सुभाषचन्द्र बोस को भारत के बाहर जाकर ब्रिटेन के शत्रु राष्ट्रों से सैनिक सहयोग लेने की सलाह दी. द्वीतीय विश्व युद्ध से पहले जब अंग्रेज हिंदुस्तानियों को सेना में भर्ती कर रहे थे तब सावरकर ने सुभाष चंद्र बोस से कहा था कि अपने समर्थकों को सेना में ज्यादा से ज्यादा संख्या में भर्ती करानी चाहिए ताकि वक्त आने पर वो काफी मददगार साबित हों. और आगे ऐसा ही हुआ. जब बोस की आजाद हिंद फौज तैयार हुई तो वो सारे ब्रिटिश आर्मी छोड़ इनके साथ आ गए थे. सुभाष चन्द्र बोस ने सावरकर की रणनीति को अपनाया जिसका फायदा आजाद हिन्द फौज बनाने पर काफी मिला. ये बातें पत्राचारों और दस्तावेजों में दर्शित हैं लेकिन अब कोई आंख ही बंद करके अंधा बन जाए तो इसमें किसी और का क्या कसूर है.
सावरकर के योगदान को एक पोस्ट में समेटना असंभव है. वैसे ही ये पोस्ट ज्यादा लंबा हो गया है. मूल बात ये है कि स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति पूरे राष्ट्र को श्रद्धा और कृतज्ञता प्रगट करना चाहिए चाहे वो किसी भी विचारधारा से हों. लेकिन, कांग्रेसियों और वामपंथियों की वजह से भारतीय राजनीति पतन के ऐसे बिन्दु पर पहुंच गयी है कि ये स्वतंत्रता सेनानी को श्रद्दांजली देने में भी राजनीति करते हैं. इनकी पतन का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब 2003 संसद में वीर सावरकर की तस्वीर लगाई जा रही थी तब सोनिया गांधी ने कुछ वामपंथी इतिहासकारों के बहकावे में आकर विरोध किया था. हकीकत ये है कि ये वामपंथी झूठ को बार-बार दोहरा कर सच साबित करते आए हैं. लेकिन ये कांग्रेस पार्टी का सावरकर विरोध तो सरासर मूर्खता है क्योंकि इन्दिरा गांधी ने मई, 1970 में सावरकर पर डाक टिकट जारी किया था. और स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान की सराहना की थी. शायद यही फर्क है इंदिरा गांधी और आज के बौने नेतृत्व में.
(वरिष्ठ पत्रकार मनीष कुमार के फेसबुक वॉल से)