दिल्ली के भाजपा मुख्यालय में तनाव बढ़ता जा रहा था. पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी लालकृष्ण आडवाणी के घर पर थीं और उनकी बेटी प्रतिभा आडवाणी को कांग्रेस में शामिल करने की कोशिश चल रही थी. कांग्रेस ने भाजपा के सभी बड़े नेताओं के खिलाफ मजबूत उम्मीदवार उतारने का फैसला किया था. लेकिन गांधीनगर से ऐसा नहीं हो पा रहा था. यहां से भाजपा अध्यक्ष अमित शाह चुनाव लड़ रहे हैं. और राहुल गांधी खुद एक रैली में इतना तक कह चुके हैं कि नरेंद्र मोदी ने जूते मारकर लालकृष्ण आडवाणी को स्टेज से उतार दिया. इसलिए गांधीनगर सीट को लेकर कांग्रेस काफी पशोपेश में थी.
यहां से अमित शाह चुनाव प्रचार शुरू कर चुके थे और हर हफ्ते यहां उनका रोड शो चल रहा था. जब अमित शाह गांधीनगर में नहीं होते तो उनका परिवार और पार्टी के नेता प्रचार संभालते थे. लेकिन कांग्रेस को वहां से एक मजबूत उम्मीदवार नहीं मिला था. सुनी-सुनाई है कि ऐसे में गुजरात से ही आने वाले और दस जनपथ के करीबी अहमद पटेल ने आइडिया दिया कि क्यों न आडवाणी के परिवार के ही किसी सदस्य को अमित शाह के खिलाफ चुनाव मैदान में उतारा जाए. इस सियासी चाल में कांग्रेस का फायदा ही फायदा था.
शर्मिष्ठा मुखर्जी और प्रतिभा आडवाणी के बीच बीस साल से भी ज्यादा की गहरी दोस्ती है और शर्मिष्ठा अब कांग्रेस में पूरी तरह सक्रिय हैं. पार्टी के शीर्ष नेताओं के कहने पर वे यह संदेश लेकर लालकृष्ण आडवाणी के घर पहुंची. लेकिन प्रतिभा ने इसके लिए मना कर दिया. आडवाणी परिवार के करीबी लोग बताते हैं कि प्रतिभा आडवाणी को अमित शाह के खिलाफ लड़ने के लिए मनाने की बहुत कोशिश की गई लेकिन उनका कहना था कि जिस पार्टी की सेवा हमने जीवन भर की उसे अब नहीं छोड़ सकते. इसके पीछे सुनी-सुनाईे एक थ्योरी यह भी है कि आडवाणी को अभी भी शायद ऐसी उम्मीद है कि चुनाव के बाद कुछ विशेष परिस्थितियां होने पर भाजपा में वे फिर से प्रासंगिक हो सकते हैं.
यह बात सच है कि आडवाणी का परिवार चाहता था कि गांधीनगर सीट पर नया उम्मीदवार तय करने से पहले पार्टी उसे भरोसे में ले. कोई जल्दी भी नहीं थी क्योंकि गांधीनगर में चुनाव की तारीख बहुत दूर थी. लेकिन बगैर लालकृष्ण आडवाणी को भरोसे में लिए पार्टी ने एकतरफा ढंग से अमित शाह को वहां से उम्मीदवार बना दिया. इसलिए आडवाणी परिवार आहत तो था लेकिन इतना नहीं कि पार्टी ही छोड़ दे. बताया जाता है कि जब प्रतिभा आडवाणी ने कांग्रेस का ऑफर ठुकरा दिया तो उसके बाद अमित शाह खुद उनके घर पर गए और उनसे लंबी बात की. जानने वाले बताते हैं कि अब करीब-करीब यह फैसला हुआ है कि सिक्योरिटी का हवाला देकर पृथ्वीराज रोड का बंगला आडवाणी परिवार के पास ही रहेगा और प्रतिभा के राजनैतिक भविष्य की भी उपेक्षा नहीं की जाएगी.
कांग्रेस ने मुरली मनोहर जोशी के परिवार के सामने भी यही दांव चला था. इलाहाबाद, बनारस या फिर कानपुर की सीट से उनकी बेटी निवेदिता को चुनाव लड़ाने का ऑफर लेकिर पार्टी के एक बड़े नेता उऩके परिवार के पास आए थे. लेकिन सुनी-सुनाई ही है कि यहां भी उसे लगभग वही जवाब मिला जो लालकृष्ण आडवाणी के परिवार से मिला था. प्रतिभा आडवाणी से मिलने के बाद अमित शाह मुरली मनोहर जोशी से भी मिले और उनकी नाराजगी भी दूर करने की कोशिश की गई. तय यह हुआ कि उनका भी सरकारी बंगला उनके पास ही रहेगा और भाजपा का कोई भी नेता मार्गदर्शक मंडल के खिलाफ बयानबाजी नहीं करेगा.
यह सच है कि लालकृष्ण आडवाणी की तुलना में मुरली मनोहर जोशी पार्टी से ज्यादा नाराज थे. उन्होंने पार्टी नेतृत्व के बारे में ऊपर से नीचे तक के नेताओं को खूब खरी-खोटी भी सुनाई थीं. लेकिन जब उनका फर्जी पत्र सोशल मीडिया में घूमने लगा तो उन्होंने इसके लिए चुनाव आयोग तक को चिट्ठी लिखकर इसकी जांच करने की गुजारिश की. पार्टी के मार्गदर्शक मंडल के करीबी नेता कहते हैं कि पार्टी में अनुशासन का आधार आडवाणी-जोशी जैसे नेताओं ने ही तैयार किया था. ऐसे में वे पार्टी या नेतृत्व से नाराज़ तो हो सकते हैं लेकिन पार्टी छोड़ने की नहीं सोच सकते.
पार्टी के भीतर एक खबर यह भी फैली हुई है कि चुनाव के बाद एक नया मार्गदर्शक मंडल बनाया जाएगा जिसमें उन सभी नेताओं को जगह मिलेगी जिन्हें पार्टी ने टिकट नहीं दिया है. जो नेता राजभवन जाना चाहेंगे उन्हें राजभवन भेजा जाएगा. जो सियासत से सार्वजनिक संन्यास लेकर अपने परिवार को आगे लाना चाहेंगे उन्हें भी मौका दिया जाएगा. इसकी शुरूआत भी हो गई है. हरियाणा के मंत्री बीरेंद्र सिंह ने सबसे पहले संन्यास की घोषणा की और पार्टी ने उनके बेटे को टिकट दे दिया. रमन सिंह के बेटे का टिकट इसलिए कट गया क्योंकि वे अभी सियासत में बने रहना चाहते हैं.
शत्रुघ्न सिन्हा के पार्टी छोड़ने और कांग्रेस में शामिल होने के बाद भाजपा ने डैमेज कंट्रोल के जरिए ये कदम उठाए हैं. पार्टी संगठन से जुड़े बड़े नेता साफ कहते हैं कि एक शत्रुघ्न को तो संभाला जा सकता है, लेकिन हर राज्य में अगर नेता बगावत पर उतर जाएंगे तो दिक्कत बढ़ जाएगी. इसलिए जितने नाराज़ नेता हैं उन्हें मना लिया गया है और उन्हें चुनाव तक चुप रहने की सलाह दी गई है.